जयपुर (श्रेयांस बैद)। एक शुभ चिह्न है जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है ।
हर शुभ कार्य से पहले क्यों बनाया जाता है स्वास्तिक, जानिए इसका कारण और रहस्य
स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल और शुभता का प्रतीक माना जाता रहा है हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले स्वास्तिक का चिन्ह अवश्य बनाया जाता है।
स्वास्तिक शब्द सु+अस+क शब्दों से मिलकर बना है. ‘सु’ का अर्थ अच्छा या शुभ, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है।
इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है। स्वस्तिक’ अर्थात् ‘कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैंजो आगे चलकर मुड़ जाती हैं।
इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है प्रथम स्वस्तिक जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं इसे ‘स्वस्तिक’ कहते हैं।
यही शुभ चिह्न है जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है
स्वस्तिक को ऋग्वेद की ऋचा में सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है. सिद्धान्तसार नामक ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है।उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख,चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है।
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अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोडऩे के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।
मान्यता के अनुसार स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं।




















