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भगवान श्री विष्णु निंद्रा त्याग कर संभालेंगे ब्रम्हांड की कमान आज मनाई जाएगी देवोत्थानी एकादशी।

जयपुर (श्रेयांस बैद)।
भगवान श्री विष्णु निंद्रा त्याग कर संभालेंगे ब्रम्हांड की कमान
आज मनाई जाएगी देवोत्थानी एकादशी।

संवत २०८२ कार्तिक शुक्ल एकादशी शनिवार 01 नवम्बर 2025

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शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारंम गगनसदृशं मेधवर्णं शुभांगम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं वन्देविष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

देवोत्थानी एकादशी, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाई जाती है।

एकादशी तिथि आज 01 नवम्बर को सूर्योदय पूर्व 04 बजकर 06 मिनट पर लगेगी और रात्रि 03 बजकर 01 मिनट तक रहेगी इसलिए देवोत्थानी एकादशी का मान सबके लिए 01नवम्बर को ही होगा।

खबर ही खबर के पाठकों को बता रहे हैं पण्डित अनन्त पाठक :-
ज्योतिषशास्त्र एवं श्रीमद् भागवत पुराण वा विष्णु पुराण के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर आषाढ शुक्ल एकादशी को भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर चार महीने पश्चात कार्तिक शुक्ल एकादशी को शयन से उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान (देव उठनी) एकादशी भी कहते हैं।
विष्णुजी के शयन काल के चार माह में विवाह,मुंडन,गृह निर्माण प्रवेशआदि अनेक मांगलिक कार्यों का आयोजन निषेध है। हरि के जागने के पश्चात ही सभी मांगलिक कार्य शुरू किये जाते हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार आषाढ़ शुक्ल की एकादशी को ही भगवान विष्णु ने शंखासुर नामक के राक्षस को मार कर भारी थकावट से शयन किया व कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे थे।

अन्य पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु की नींद अनियमित थी। कभी-कभी वह महीनों के लिए जागते रहते थे और कभी-कभी कई महीनों तक लगातार सोते थे। इससे देवी लक्ष्मी नाखुश थी। यहां तक ​​कि भगवान शिव, भगवान ब्रह्मा, देवों और सन्यासियों को भगवान विष्णु के दर्शन के लिए लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जबकि भगवान विष्णु सो रहे होते थे। यहाँ तक की राक्षस भगवान विष्णु की नींद की अवधि का लाभ लेते थे और मनुष्यों पर अत्याचार करते थे एक दिन जब भगवान विष्णु नींद से जागे तो उन्होंने देवों और संतों को देखा जो उनसे सहायता मांग रहे थे। उन्होंने भगवान विष्णु को बताया कि शंख्यायण नाम का दानव सभी वेदों को चुरा लिया था जिससे लोग ज्ञान से वंचित हो गए थे। भगवान विष्णु ने वेदों को वापस लाने का वादा किया इसके बाद वह दानव शंख्यायण के साथ कई दिनों तक लड़े और वेद वापस लेकर आये।भगवान विष्णु इस लडाई के बाद जागते रहे और उन्होंने अपनी नींद को चार महीनों रखने के प्रण लिया। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी।यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस दौरान जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे समेत निवास करुंगा।

देवोत्थानी एकादशी महात्म्य :-
पद्मपु राणके उत्तर खण्डमें वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी (देवोत्थान) एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है। इस परम पुण्यप्रदा एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त बैकुण्ठ जाता है। इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं, वह सब अक्षय फल दायक हो जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सव करना प्रत्येक सनातन धर्मी का आध्यात्मिक कर्तवय है ।

अग्नि पुराण के अनुसार:-
एकादशी तिथि का उपवास बुद्धिमान, शांति प्रदाता है।

विष्णुपुराण के अनुसार:-
किसी भी कारण से चाहे लोभ के वशीभूत होकर, चाहे मोह के वशीभूत होकर एकादशी तिथि को भगवान विष्णु का अभिवंदन करते हैं वे समस्त दुखों से मुक्त होकर जन्म मरण के चक्र से भी मुक्त हो जाते हैं।
सनत् कुमार ने लिखा है – कि जो व्यक्ति एकादशी व्रत या स्तुति नहीं करता वह नरक का भागी होता है।
महर्षि कात्यायन के अनुसार:- जो व्यक्ति संतति, सुख सम्पदा, धन धान्य व मुक्ति चाहता है तो उसे देवोत्थनी एकादशी के दिन विष्णु स्तुति, शालिग्राम व तुलसी महिमा के पाठ व व्रत रखना चाहिए।देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सव करना प्रत्येक सनातनधर्मी का आध्यात्मिक कर्तवय है ।

इस दिन प्रातः काल स्नान से निवृत्त होकर भगवान विष्णु का षोडषोपचार विधि से पूजन करें ।आंगन में भगवान विष्णु चरण चिह्न बनायें ।दोपहर को उन्हे धूप से बचाने के वस्त्र ओढ़ायें ।रात्रि में पुनः पूजन कर भगवान को सुलाने के बाद श्रद्धा से उन्हे जगायें ।
रामार्चन चन्द्रिका- ग्रन्थ के अनुसार:- शंख, घंटियां आदि बजाकर उन्हे उठायें ।
पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी को अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से युक्त होकर मन्त्रोच्चार से भगवान नारायण को निम्न मंत्र सेजाग्रत करें।
मन्त्र:-
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुड़ध्वज।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यमङ्गलं कुरु।।

अर्थात:हे गोविंद! उठिये, उठिये, हे गरुड़ध्वज! उठिये, हे कमलाकान्त प्रभु निद्रा का त्यागकर तीनों लोकों का मंगल कीजिये। ऐसा कह कर प्रातःकाल शंख नगाड़े बजाकर स्वागत करना चाहिए, सविधि पूजन कर शायं काल में तुलसी से शालिग्राम का विवाह करना चाहिए। ये व्रत महामंगलप्रद होता है।

तुलसी जी की उतपत्ति एवं विवाह उत्सव:- कथा:-
श्रीमद देवि भागवत पुराण में इनके अवतरण की दिव्य लीला कथा भी बनाई गई है। एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।
दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवि पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतध्यान हो गईं।
देवि पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा।ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्चिछत हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।
भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।
इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला होने का श्राप दे दिया तथा स्वयं सति हो गईं। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा।’
जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है। सती वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।

तुलसी विवाह विधि:-
जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती, अथवा जिनके यहाँ कन्या नहीं होती उनको जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है। कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।तुलसी के पौधे को राजस्थान में इतना पवित्र माना गया है कि इसके बिना घर को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। तुलसी का पौधा घर में घर के किसी सदस्य की भाँति रहता है। घर के आँगन में तुलसी के पौधे के लिए विशेष स्थान बना होता है, जहाँ इसकी नित्य प्रतिदिन पूजा की जाती है। यहाँ तक कि घर मेंहर शुभ मौके, पर्व व त्यौहार पर तुलसी के पौधे को भी नई चुनरी ओढ़ाई जाती है।तुलसी के पौधे के साथ और भी दिलचस्प रीति-रिवाज़, परंपराएँ जुड़ी हैं। यहाँ तुलसी को घर में बेटी की तरह रखा जाता है और एक दिन इसकी भी बेटी की ही तरह घर से डोली भी उठती है। जी हाँ यह शादी बिल्कुल घर की किसी बेटी की ही तरह होती है। फ़र्क इतना होता है कि यहाँ दूल्हे के रूप में गाँव के मंदिर के भगवान आते हैं और उत्साह से सराबोर बाराती होते हैं गाँव के ही बाशिंदे।कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ कार्तिक शुक्ल एकादशी का शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है । समस्त विधि विधान पुर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है। विवाह के समय स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।

मगन भई तुलसी राम गुन गाइके मगन भई तुलसी ।
सब कोऊ चली डोली पालकी रथ जुडवाये के ।।
साधु चले पाँय पैया, चीटी सो बचाई के ।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके।।

शालिग्राम जी को दोनों हाथों में लेकर यजमान
वर के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं।
विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है।
दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं। तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल की नवमी ठीक तिथि है। नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को देना शुभ होता है। लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है।शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती,वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें।तुलसी की शादी में भेंट देना भी बहुत पुण्य का काम माना जाता है, इसलिए कोई पीछे नहीं रहता। सबइसे अपने घर का ही काम मानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि धर्म के इस काम में किसी के रूठने-मनाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती, इसलिए आम शादियों में अपना रुतबा दिखाने और ख़ास ख़ातिर की इच्छा रखनेवाले रिश्तेदार भी तुलसी की शादी में बर्ताव के मामले में नरम ही नज़र आते हैं।भीष्म पंचकयह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलता है, लिहाजा इसे भीष्म पंचक कहा जाता है। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियाँ या पुरूष निराहार रहकर व्रत करते हैं।विधानः ”ऊँ नमो भगवने वासुदेवाय“ मंत्र से भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है । पाँच दिनों तक लगातार घी का दीपक जलता रहना चाहिए। “ ”ऊँ विष्णुवे नमः स्वाहा“ मंत्र से घी, तिल और जौ की १०८ आहुतियां देते हुए हवन करना चाहिए।

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भीष्म पंचक कथा :-
का युद्ध समाप्त होने पर जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा मेशरशैया पर शयन कर रहे थे। तक भगवान कृष्ण पाँचो पांडवों को साथ लेकर उनके पास गये थे। ठीक अवसर मानकर युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से उपदेश देने का आग्रह किया। भीष्म ने पाँच दिनो तक राज धर्म, वर्णधर्म मोक्षधर्म आदि पर उपदेश दिया था । उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट हुए और बोले, ”पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पाँच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया है उससे मुझे बडी प्रसन्नता हुई है। मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूँ ।जो लोग इसे करेंगे वे जीवन भर विविध सुख भोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करेंगे।

तुलसी महिमा:-
हमारे सनातन संस्कार अनुसार तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा जाता है।
इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है।

तुलसी बहुत पवित्र है और सभी पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है।

सभी कार्यों में तुलसी का पत्ता अनिवार्य माना गया है।प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा उसकी पूजा करना अनिवार्य माना गया है।

तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है।हमारे शास्त्रों में तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है, तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है, इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है।
जय श्री हरि ! जय श्रीकृष्ण!

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