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नाथ संप्रदाय का प्रतीक जोधपुर का महामंदिर, जानिए इसके इतिहास, वैभव और उपेक्षा की कहानी

जोधपुर: सूर्यनगरी जोधपुर अपनी ऐतिहासिक धरोहरों और भव्य स्थापत्य कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है. मेहरानगढ़ किला, उम्मेद भवन, जसवंत थड़ा जैसी इमारतें जहां जोधपुर की पहचान हैं, वहीं शहर के भीतर स्थित महामंदिर भी अपने समय में असाधारण महत्व रखता था. अधिकांश लोग आज महामंदिर को केवल एक इलाके के नाम से जानते हैं, जबकि असल में यह एक भव्य मंदिर है, जिसका नाम ही पूरे क्षेत्र की पहचान बन गया. यह मंदिर नाथ संप्रदाय के प्रमुख संत जलंधरनाथ को समर्पित है और इसका निर्माण पूर्व महाराजा मानसिंह ने अपने गुरु आयास देवनाथ के सम्मान में करवाया था.

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निर्माण की प्रेरणा और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: मंदिर की देखरेख कर रहे और आयास देवनाथ के वशंज राजेश नाथ बताते हैं कि नाथ महामंदिर का निर्माण एक रोचक और नाटकीय ऐतिहासिक घटनाक्रम का परिणाम था. तत्कालीन महाराजा विजय सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र भीम सिंह ने राजगद्दी संभाली और संभावित उत्तराधिकारियों को समाप्त करने का अभियान शुरू किया. विजय सिंह के दूसरे पुत्र मान सिंह अपनी जान बचाने के लिए जालोर किले में शरण ले ली. दस वर्षों तक भीम सिंह की सेना ने किले को घेरे रखा. इसी बीच मानसिंह ने वहां से निकलने का विचार बनाया.

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ऐसे कठिन समय में नाथ संप्रदाय के योगी आयास देवनाथ ने मान सिंह को संदेश भेजा कि यदि वे कुछ दिन और धैर्य रखें, तो परिस्थितियां उनके पक्ष में होंगी और वे मारवाड़ के शासक बनेंगे. भविष्यवाणी सच साबित हुई. 21 अक्टूबर 1803 को भीम सिंह की मृत्यु हो गई और सेनापति इन्द्रराज सिंघवी ने मान सिंह को सम्मानपूर्वक जोधपुर लाकर राजगद्दी पर बैठाया. कृतज्ञता स्वरूप मान सिंह ने अपने गुरु के सम्मान में एक विशाल और भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प लिया. यही मंदिर आगे चलकर महामंदिर कहलाया.

लाखों की लागत से बना भव्य मंदिर: राजेश नाथ ने बताया कि 1804 में महामंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ और करीब दो वर्षों तक चला. इस पर उस समय 10 लाख रुपए से अधिक की लागत आई थी, जो उस दौर में एक असाधारण राशि मानी जाती थी. मंदिर का निर्माण किसी किले की तरह कराया गया. चारों ओर ऊंची प्राचीर और चार विशाल दरवाजे बनाए गए. इसके अतिरिक्त मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन पोल (द्वार) बनाए गए. परिसर में दो महल, एक बावड़ी, मानसागर तालाब और नाथ योगियों के लिए श्मशान भूमि भी बनाई गई. मुख्य मंदिर का विशाल दरवाजा, उसके ऊपर बने झरोखे और संगमरमर का तोरण द्वार कला और स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय हैं. मंदिर के चारों कोनों पर कलात्मक छतरियां और गर्भगृह के ऊपर एक विशाल गुम्बद इसकी भव्यता को और बढ़ाते हैं.

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92 खंभों वाला मंदिर: महामंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसके 92 खंभे हैं, जिन पर बारीक नक्काशी की गई है. लोग इसे प्रचलित रूप से “सौ खंभों का मंदिर” भी कहते हैं. इन खंभों पर की गई कलाकारी आज भी देखने लायक है. गर्भगृह में लकड़ी के बने सुंदर सिंहासन पर जलंधरनाथ जी की मूर्ति स्थापित है. यह मूर्ति पूरे भारत में अद्वितीय मानी जाती है. गर्भगृह की दीवारों पर सोने के घोल से चित्रकारी की गई थी, जो अब उपेक्षा के कारण खराब हो रही है.

84 हठ योगासन की अद्भुत झलक: नाथ संप्रदाय योग और साधना के लिए प्रसिद्ध है. यही कारण है कि महामंदिर की दीवारों पर 84 प्रकार के हठ योगासन उकेरे गए हैं. नाथ परिवार के वशंज और योग शिक्षक दिव्यांश नाथ बताते हैं कि इन चित्रों से यह समझा जा सकता है कि साधक कितनी कठोर तपस्या करते थे. हठ योग आसान नहीं है, इसे साधने के लिए दृढ़ संकल्प और कठिन साधना की आवश्यकता होती है. यही हठ योग आगे चलकर पातंजलि के योग सूत्रों की नींव बना. उन्होंने बताया कि किंवदंती है कि जब भगवान शिव पार्वती को हठ योग का ज्ञान दे रहे थे, तभी अर्धनारीश्वर मछेंद्रनाथ ने इसे सुना और आगे बढ़ाया. महामंदिर में उकेरे गए ये योगासन इस परंपरा की सजीव झलक हैं.

शरणस्थली का महत्व: महामंदिर केवल धार्मिक स्थल ही नहीं था, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा. महाराजा मानसिंह ने मंदिर में शिलालेख लगवाया था, जिसके अनुसार यहां शरण लेने वाले किसी भी व्यक्ति पर कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी. इतिहास में यह उदाहरण भी मिलता है कि जब अंग्रेजों से संघर्षरत मराठा राजा अप्पासाहेब भोंसले भागकर मारवाड़ पहुंचे, तो उन्होंने महामंदिर में शरण ली. अंग्रेज यहां तक पीछा करते आए, लेकिन गादीपति ने स्पष्ट कहा कि मंदिर की शरण में आए व्यक्ति को कोई हानि नहीं पहुंचाई जा सकती. परिणामस्वरूप भोंसले को आजीवन यहीं रहना पड़ा और 1840 में उनकी मृत्यु यहीं हुई.

उपेक्षा और दुदर्शा का शिकार: आज यह ऐतिहासिक और कलात्मक धरोहर उपेक्षा का शिकार है. मंदिर परिसर में एक सरकारी विद्यालय संचालित किया जा रहा है, जिससे मंदिर का मूल स्वरूप विकृत हो रहा है. पर्यटक जो कभी यहां बड़ी संख्या में आते थे, अब लगभग आना बंद कर चुके हैं. स्थानीय लोग भी मंदिर की ओर कम ही रुख करते हैं. नाथ संप्रदाय की दसवीं पीढ़ी अब भी इस मंदिर की देखरेख कर रही है, लेकिन इतने बड़े परिसर का प्रबंधन निजी स्तर पर संभव नहीं है. भित्ति चित्र खराब हो रहे हैं, संगमरमर की कलाकारी टूटने लगी है और परिसर का वैभव धीरे-धीरे खत्म हो रहा है.

संरक्षण की सख्त जरूरत: इतिहासकारों और स्थानीय नागरिकों का मानना है कि यदि सरकार और प्रशासन इस मंदिर की ओर ध्यान दें, तो यह एक बड़ा पर्यटन केंद्र बन सकता है. महामंदिर केवल धार्मिक स्थल ही नहीं, बल्कि राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर है. यहां की स्थापत्य कला, भित्ति चित्र, योग परंपरा और ऐतिहासिक घटनाएं इस जगह को अद्वितीय बनाती हैं. यदि समय रहते मंदिर का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया जाए, तो यह फिर से अपने पुराने वैभव को प्राप्त कर सकता है. पर्यटन के लिहाज से भी यह जगह देश-विदेश के आगंतुकों को आकर्षित कर सकती है.

जोधपुर का महामंदिर नाथ संप्रदाय की आध्यात्मिक परंपरा, योग साधना और स्थापत्य कला का अनमोल प्रतीक है. यह केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि इतिहास की जीवित गाथा है, लेकिन वर्तमान उपेक्षा और सरकारी विद्यालय के संचालन के कारण इसका स्वरूप बिगड़ता जा रहा है. समय की मांग है कि इस धरोहर को संरक्षित किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां इसे देख सकें और जान सकें कि राजस्थान की धरती कितनी समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं से भरी रही है.

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