जयपुर (श्रेयांस बैद)
आज दीपावली मनाई जाएगी
शुभ संवत् २०८२ कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी परि अमावस्या सोमवार 20 अक्टूवर 2025।।
खबर ही खबर की और से समस्त पाठकों की दिवाली की हार्दिक शुभमंगलकामनाएं।।
खबर ही खबर के लिए बता रहें है बहराइच उत्तर प्रदेश से पण्डित अनन्त पाठक:- भारत के सभी त्यौहारों में सबसे सुन्दर दीवाली (दीपावली) प्रकाशोत्सव है। जो सत्य की जीत व आध्यात्मिक अज्ञान को दूर करने का प्रतीक है। शब्द “दीपावली” का शाब्दिक अर्थ है दीपों (मिट्टी के दीप) की पंक्तियां।
मिट्टी के दीपकों की पंक्तियों से प्रकाशित की जाती हैं तथा घरों को रंगों से सजाया जाता है। यह त्यौहार नए वस्त्रों, और परिवार व मित्रों के साथ विभिन्न प्रकार की मिठाइयों के साथ मनाया जाता है। चूंकि यह प्रकाश वा खुशी तथा आनन्दोत्सव एवं दैव शक्तियों की बुराई पर विजय की सूचक है।
भगवती लक्ष्मी (विष्णु की पत्नी), जो कि धन और समृद्धि की प्रतीक हैं, उन्हीं की इस दिन पूजा की जाती है। पश्चिमी बंगाल में यह त्यौहार काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। काली जो शिवजी की पत्नी हैं, की पूजा दीवाली के अवसर पर की जाती है।
दीपावली मनाने के कई लेख मिलते हैं!
पुराणों में उल्लेख है कि दीपावली की अर्ध रात्रि में लक्ष्मी जी घरों में विचरण करती हैं इसीलिए लक्ष्मी के स्वागत के लिए घरों को सभी प्रकार से साफ, शुद्ध और सुंदर रीति से सजाया जाता है. माना जाता है कि दीपावली की अमावस्या से पितरों की रात प्रारंभ होती है. इसलिए इस दिन दीप जलाने की परंपरा है.
पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन से लक्ष्मी व कुबेर का प्रकट होना- इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी जी प्रकट हुईं ।
एक पौराणिक मान्यता है कि दीपावली के दिन ही माता लक्ष्मी दूध के सागर, जिसे केसर सागर के नाम से जाना जाता है, से उत्पन्न हुई थीं। माता ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया और उनका उत्थान किया। इसलिए दीपावली के दिन माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजन करने से माता लक्ष्मी अपने भक्तजनों पर प्रसन्न होती हैं और उन्हें धन-वैभव से परिपूर्ण कर मनवांछित फल प्रदान करती हैं।
राजा बली के संबंध में दीवाली उत्सव की कथा है। पुराणों के अनुसार, राजा बली एक दयालु दैत्यराज था। वह इतना शक्तिशाली था कि वह स्वर्ग के देवताओं व उनके राज्य के लिए खतरा बन गया। बली की ताकत को मंद करने के लिए भगवान विष्णु एक बौने भिक्षुक ब्राह्मण के रूप में आए। ब्राह्मण ने चतुराई से राजा से तीन पग के बराबर भूमि मांगी। राजा ने खुशी के साथ यह दान दे दिया। बली को कपट से फंसाने के बाद, भगवान विष्णु ने स्वयं को प्रभु के स्वरूप में पूर्ण वैभव के साथ प्रकट कर दिया। उसने अपने पहले पग से स्वर्ग व दूसरे पग से पृथ्वी को नाप लिया। यह जानकर कि उसका मुकाबला शक्तिशाली भगवान विष्णु के साथ है, बली ने आत्म समर्पण कर दिया व अपना शीश अर्पित करते हुए विष्णु को अपना पग उस पर रखने के लिए आमंत्रित किया। भगवान विष्णु ने अपने पग से उसे अधोलोक में धकेल दिया। इसके बदले में भगवान विष्णु ने, समाज के निम्न वर्ग के अंधकार को दूर करने के लिए उसे ज्ञान का दीपक प्रदान किया। उसे यह आशीर्वाद भी दिया कि वह वर्ष में एक बार अपनी जनता के पास अपने एक दीपक से लाखों दीपक जलाने के लिए आएगा ताकि दीवाली की रात्रि के अंधेरों को, अज्ञान, लोभ, ईर्ष्या, कामना, क्रोध, अहंकार और आलस्य के अंधकार को दूर किया जा सके, तथा ज्ञान, विवेक और मित्रता की चमक लाई जा सके। आज भी प्रत्येक वर्ष दीवाली के दिन एक दीपक से दूसरा जलाया जाता है, और बिना हवा की रात में स्थिर जलने वाली लौ की भांति संसार को शांति व भाइचारे का संदेश देती है।
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त्रेतायुग में भगवान राम रावण को हराकर और चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या वापस लौटे तब अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। भगवान राम के स्वागत में अयोध्या वासियों ने दिवाली मनाया तब से दीपावली मनाई जाती है।
द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की मदद से प्रागज्योतिष पुर नगर के असुर राजा नरका सुर का वध किया था।
नरकासुर, जो असम का एक शक्तिशाली राजा था, और जिसने हजारों राजकुमारियों को कैद कर लिया था, नरका सुर को स्त्री के हाथों वध होने का श्राप मिला था। श्री कृष्ण जी ने सत्यभामा जी की मदद से नरकासुर का दमन किया व कैद राजकुमारियों को स्वतंत्रता दिलाई। उस दिन कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि थी। नरका सुर के आतंक और अत्याचार से मुक्ति मिलने की खुशी में लोगों ने दीपोत्सव मनाया था, इसलिए हर वर्ष चतुर्दशी तिथि को छोटी दिवाली या नरक चतुर्दशी मनाई जाने लगी। इसके अगले दिन दीपावली मनाई गई।
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इस घटना की स्मृति में प्रायद्वीपीय भारत के लोग सूर्योदय से पहले उठ जाते हैं, व कुमकुम अथवा हल्दी के तेल में मिलाकर नकली रक्त बनाते हैं। राक्षस के प्रतीक के रूप में एक कड़वे फल को अपने पैरों से कुचलकर वे विजयोल्लास के साथ रक्त को अपने मस्तक के अग्रभाग पर लगाते हैं। तब वे धर्म-विधि के साथ तैल स्नान करते हैं, स्वयं पर चन्दन का टीका लगाते हैं। मन्दिरों में पूजा अर्चना के बाद फलों व बहुत सी मिठाइयों के साथ बड़े पैमाने पर परिवार का जलपान होता है।
दीवाली पर पूजी जाने वाली भगवती महालक्ष्मी चल एवं अचल, दृष्य एवं अदृष्य सभी सम्पत्तियों और अष्ट सिद्धि एवं नौ निधियों की अधिष्ठात्री साक्षात् नारायणी हैं। भगवान श्रीगणेश सिद्धि-बुद्धि और शुभ-लाभ के स्वामी तथा सभी अमंगलों एवं विघ्नों के नाशक हैं, ये सत्बुद्धि प्रदान करने वाले हैं। अत: दीपावली के दिन इनके समवेत पूजन से सभी कल्याण-मंगल एवं आनंद प्राप्त होते हैं। दीपावली के दिन चौमुख दीपक रातभर प्रदीप्त रहना शुभ माना जाता है।
दिपावली निर्णय :-
बार संवत्२०८२ वर्ष 2025 के दीपावली तिथि मानो को देखकर धर्मशास्त्रीय ग्रंथों के तत्संबंधी समस्त वाक्यों का अनुसरण एवं अनुशीलन करते हुए आज 20 अक्टूबर सोमवार को ही दीपावली सिद्ध हो रही है।
प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा ततःक्रमात्।
दीप वृक्षाश्चदातव्याःशक्त्यादेव गृहेषु च॥
तथा
दीपान्दत्वा प्रदोषेतुलक्ष्मीं पूज्य यथा विधि।
आदि भविष्य पुराण के वचनों का आश्रय लेकर हेमाद्रि ने कहा है कि
अयं प्रदोषव्यापिग्राह्यः॥
यह सब निर्णय सिंधु का उद्धरण है।
पुनः इसकी विवेचना के क्रम में वहां वर्णित है कि
दिनद्वये सत्त्वेपर:।
इस स्थिति को और भी स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार ने
दंडैक रजनी योगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि।
तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुख रात्रिकेति।।
अर्थात् पूर्व और पर दिन प्रदोष काल में अमावस्या के रहने पर तथा दूसरे दिन अमावस्या का रजनी से न्यूनतम 1 दण्ड योग होने की स्थिति में दूसरे दिन दीपावली मनाना शास्त्रोचित होगा। परंतु इस संशय की स्थिति में दीपावली का स्पष्ट निर्णय देने से पहले उपर्युक्त दोनों स्थितियों को समझ लेना अति आवश्यक होगा जिसमें उभयदिन प्रदोष व्यापिनी अमावस्या तथा दूसरे दिन अमावस्या का रजनी के साथ योग वर्णित है।
अतः इससे यह सिद्ध हो रहा है कि स्वयं निर्णयसिंधु कार ने दिन द्वये प्रदोष सत्त्वेपर: के लिए दंडैक रजनी योगे….. को ही आधार बनाया है। तो क्या अमावस्या का प्रदोष काल में एक दण्ड व्यापित होना ही दंडैक रजनी योग अर्थात् अमावस्या की रजनी में एक दण्ड व्याप्ति है। या नहीं
अतः इसका निर्णय करने से पूर्व रजनी को समझना आवश्यक है।शास्त्र के अनुसार रजनी का तात्पर्य प्रदोष से नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद से है और इसको स्पष्ट करते हुए तिथि निर्णय एवं पुरुषार्थ चिंतामणि आदि ग्रंथों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि सूर्यास्त के अनंतर तीन मुहूर्त तक प्रदोष एवं उसके बाद की रजनी संज्ञा होती है
नक्षत्र दर्शनात्संध्या सायं तत्परतः स्थितम्।
तत्परा रजनी ज्ञेया पुरुषार्थ चिंतामणि।।
उदयात् प्राक्तनी संध्या घटिका द्वयमिष्यते।
सायं सन्ध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः॥
त्रिमुहूर्तः प्रदोषः स्याद् भानावस्तंगते सति।
तत्परा रजनी प्रोक्ता तत्र कर्म परित्यजेत्॥
तिथिनिर्णय:।।
त्रियामां रजनीं प्राहुस्त्यक्त्वाद्यन्तचतुष्टयम्।
नाडीनां तदुभे सन्ध्ये दिवसाद्यन्त संज्ञके।।
इन धर्मशास्त्रीय वचनों से यह स्पष्ट हो रहा है कि रजनी प्रदोष नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद की संज्ञा है अतः दंडैक रजनी योगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि। के अनुसार 21अक्टूबर को अमावस्या का रजनी से कोई योग भी नही हो रहा है।
अतः जिन क्षेत्रों में 21 अक्टूबर को अमावस्या का प्रदोष के एक भागभी संगति नहीं हो भी रही है वहां पर रजनी से अमावस्या का किसी भी स्थिति में योग नहीं हो रहा है अतः उनके मत से
भी अग्रिम दिन दीपावली नहीं होगी। इसको पुष्ट करने के लिए स्वयं कमलाकर भट ने भी लिखा है कि दिवोदास के ग्रंथ में प्रदोष को दीपावली का मुख्य कर्मकाल मानने के कारण उपर्युक्त विवेचना है।
परंतु ब्रह्म पुराण के मत में
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्।
अतःस्वलंकृता लिप्ता दीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः।
सुधा धवलि ताः कार्याः पुष्पमालोप शोभिताः।।
के अनुसार दीपावली में प्रदोष तथा अर्धरात्रि उभय काल व्यापिनी अमावस्या उत्तम है, इसकी पुष्टि के लिए ब्रह्मपुराण के निम्न वाक्यों का उदाहरण देते हुए लिखा है कि–
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्।
अतः स्वलंकृता लिप्ता दीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः।।
इति ब्राह्मोक्तेश्च प्रदोषार्धरात्रव्यापिनी मुख्या।
एकैकव्याप्तौ परैव; प्रदोषस्य मुख्यत्वादर्धरात्रेऽनुष्ठेयाभावाच्च
अर्थात् प्रदोष या अर्धरात्रि इन दोनों में से किसी एक में अमावस्या की व्याप्ति हो तो पूर्व दिन को छोड़कर अगले दिन ही दीपावली मनाई जानी चाहिए।
पुनः
अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः।
प्रदोषसमये राजन् कर्तव्यादीपमालिकेति क्रमः।
को आधार बनाकर कुछ लोगों ने यह भी निर्धारित कर दिया है कि श्राद्ध इत्यादि करने के बाद ही प्रदोष कल में दीप मालिका पूजन होगा परंतु उनकी इन शंकाओं का निवारण पुरुषार्थ चिंतामणि एवं जयसिंह कल्पद्रुम आदि ग्रंथों में विस्तृत विवेचना के साथ कर दिया गया है कि तिथिमान वश पूर्व दिन दीपावली पूजन के उपरांत अग्रिम दिन भी पितृ श्राद्ध इत्यादि शास्त्र विहित है। तथा
अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः।
प्रदोष समये राजन् कर्तव्या दीपमालिकेति क्रमः।
जो कहा गया है वह उस दिन संपूर्ण तिथी प्राप्त होने की स्थिति का अनुवाद है कोई विधि नहीं।
अतः केवल पूर्व दिन प्रदोष प्राप्त होने पर प्रथम दिन, केवल दूसरे दिन प्रदोष प्राप्त होने पर (पूर्व दिन अर्धरात्रि एवं दूसरे दिन प्रदोष) दूसरे दिन तथा पूर्व एवं पर दोनों ही दिन पूर्ण प्रदोष व्यापिनी अमावस्या के साथ दंडैक रजनी योगे आदि को संगति लगने पर दूसरे दिन ही दीपावली मनाया जाना शास्त्रोचित है। परन्तु पूर्व दिन प्रदोष और अर्ध रात्रि दोनों तथा पर दिन केवल प्रदोष के एक भाग में अमावस्या की प्राप्ति होने तथा दंडैक आदि से संगति नहीं होने पर पूर्व दिन ही दीपावली का पर्व मनाया जाना शत्रोचित है।
पूजन मुहूर्त:-
प्रदोष काल मे पूजन मुहूर्त :-
सायं 16 :46 से 18 :46 तक प्रदोष काल रहेगा. इसे प्रदोष काल का समय कहा जाता है प्रदोष काल में सबसे उतम रहता है
चोघडिया मे पूजन मूहूर्त :-
लाभ चौघडिया 14 :38 से 16:04 तक उत्तम
अमृत चोघडिया 16:19 से 17:29 तक उत्तम
चर चोघडिया 17: 29 से 19:04 तकउत्तम
लग्न मे पूजन मुहूर्त:-
कुंभ लग्न (स्थिर ) सांय- 14:17 से 15:48 तक उत्तम
मीन लग्न (द्विस्वभाव) सायं 15:48 से 17:16 तक उत्तम
बृष लग्न(स्थिर) शांय- 18:55 से 20:52 तक – अति उत्तम
मिथुन लग्न (द्विस्वभाव) रात्रि- 20:52 से 23:05 तक – उत्तम
सिंह लग्न(स्थिर) रात्रि 01:23 से 03 :37 तक – अति उत्तम
कन्या लग्न(द्विस्वभाव) रात्रि- 03:37 से 05:50 तक – उत्तम
विषेश नोट:- महालक्ष्मी पूजन में अमावस्या तिथि, प्रदोषकाल, शुभ लग्न ( वृष, सिंह) व शुभ,अमृत, चर चौघडिय़ां विशेष महत्व रखते हैं। महालक्ष्मी पूजन सायंकाल प्रदोषकाल में करना चाहिए।
प्रदोष काल समय को दिपावली पूजन के लिये शुभ मुहूर्त के रुप में प्रयोग किया जाता है. प्रदोष काल में भी स्थिर लग्न समय सबसे उतम रहता है।
प्रदोष काल वा वृष लग्न का संयोग सर्वोत्तम शुभ मुहुर्त रहेगा।।
ब्रह्मपुराण में कहा गया है:
कार्तिके प्रदोषेतु विशेषेण अमावस्या निषाबर्धके।
तस्यां सम्पूज्येत देवी भोग मोक्ष प्रदायिनीम।।
अर्थात लक्ष्मी पूजा दीपदान के लिए प्रदोष काल (रात्रि का पंचमांष प्रदोष काल कहलाता है) ही विशेषतया प्रशस्त माना जाता है।
दीवाली के दिन लक्ष्मी का पूजा का विशेष महत्व माना गया है, इसलिए यदि इस दिन शुभ मुहूर्त में पूजा की जाए तब लक्ष्मी व्यक्ति के पास ही निवास करती है. “ब्रह्मपुराण” के अनुसार आधी रात तक रहने वाली अमावस्या तिथि ही महालक्ष्मी पूजन के लिए श्रेष्ठ होती है लक्ष्मी पूजा व दीप दानादि के लिए प्रदोषकाल ही विशेष शुभ माने गए हैं.परन्तु शास्त्रों में कार्तिक कृष्ण अमावस्या की सम्पूर्ण रात्रि को काल रात्रि माना गया है। अत: सम्पूर्ण रात्रि में पूजा की जा सकती है।
महानिशीथ काल मे धन लक्ष्मी का आहवाहन एवं पूजन, गल्ले की पूजा कार्य सम्पूर्ण कर लेना चाहिए. इसके अतिरिक्त समय का प्रयोग श्री महालक्ष्मी पूजन, महाकाली पूजन, लेखनी, कुबेर पूजन, अन्य मंन्त्रों का जपानुष्ठान करना चाहिए.
दीपावली पर लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है। लक्ष्मी आ जाने के बाद बुद्धि विचलित न हो इसके लिए लक्ष्मी के साथ गणपति भगवान की भी पूजा की जाती है। देवताओं के खजांची हैं भगवान कुबेर इसलिए दीपावली की रात में इनकी पूजा भी होती है।
ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी भगवान विष्णु की पूजा के बिना प्रसन्न नहीं होती है। इसलिए विष्णु की भी पूजा होती है। दीपावली की रात कई स्थानों पर काली और सरस्वती की भी पूजा लक्ष्मी के साथ होती है। क्योंकि लक्ष्मी, काली और सरस्वती मिलकर आदि लक्ष्मी बन जाती हैं। दीपावली की रात लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए आप किसी प्रकार से पूजा पाठ कर सकते हैं।




















