मकर सक्रांति – खिचड़ी खाने की परम्परा कैसे शुरू हुई, क्या विज्ञान से इसका कोई नाता ?
हिंदू धर्मावलंबियों के लिए मकर संक्रांति प्रमुख त्योहार माना जाता है. इस दिन नहा-धोकर दान करने की और भगवान सूर्य को खिचड़ी का भोग लगाकर खाने की परंपरा है. खिचड़ी के अलावा तिल और गुड़ के लड्डू भी खाए जाते हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार समेत कई राज्यों में इस दिन दही-चूड़ा भी खाया जाता है. खिचड़ी का इस दिन विशेष ही महत्व होता है. क्या आप जानते हैं कि मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा की शुरुआत कब हुई थी? इसका पौराणिक महत्व तो है ही, लेकिन विज्ञान से इसका क्या संबंध है?
आपको बता दें कि मकर संक्राति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है. ऐसी मान्यता है कि सूर्य का उत्तरायण होना काफी शुभ होता है और इसी कारण इस दिन से शुभ कार्यों की शुरुआत की जाती है.
देश के अलग-अलग हिस्सों में यह त्योहार अलग-अलग तरह से मनाया जाता है. बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, हरियाणा, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल आदि देशों में मकर संक्रांति के नाम से मनाया जाता है, जबकि तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाते हैं.
खिचड़ी खाने का महत्व
मकर संक्रांति के दिन चावल और उड़द दाल की खिचड़ी खाने और दान करने का बड़ा महत्व है. इसी कारण कई राज्यों में इस त्योहार को खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है. खिचड़ी खाने के महत्व को लेकर काशी के पंडित दयानंद पांडेय कहते हैं कि इसमें चावल को चंद्रमा का प्रतीक और उड़द दाल को शनि का प्रतीक माना जाता है.
पंडित दयानंद पांडेय आगे बताते हैं कि खिचड़ी में डाली जाने वाली हरी सब्जियां बुध ग्रह से जुड़ी हैं और इन सबका मेल मंगल और सूर्य से सीधा ताल्लुक रखता है. सूर्य के उत्तरायण होने के कारण खिचड़ी खाने से इन सारे ग्रहों का हम पर सकारात्मक प्रभाव बढ़ता है.
कब शुरू हुई खिचड़ी खाने की परंपरा?
मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा सालों से चली आ रही है. बताया जाता है कि खिलजी के आक्रमण के दौरान नाथ योगियों के पास खाने के लिए कुछ नहीं था. आक्रमण के चलते योगियों के पास भोजन बनाने का समय भी नहीं रहता था. अपनी जमीन बचाने के लिए वे संघर्ष करते रहते थे और अक्सर भूखे रह जाते थे.
बाबा गोरखनाथ ने इस समस्या का हल निकालने की सोची. उन्होंने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी, ताकि ज्यादा समय भी न लगे और भोजन भी तैयार हो जाए. उनके कहे अनुसार जब योगियों ने यह व्यंजन बनाया, तो काफी पसंद आया. इसे बनाने में बहुत कम समय लगता था. साथ ही यह काफी स्वादिष्ट और त्वरित ऊर्जा देने वाला भी होता था. उनकी सेहत में भी सुधार हुआ और ग्रहों के प्रभावी होने की वजह से आध्यात्मिक ऊर्जा भी बढ़ी.
बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन को खिचड़ी का नाम दिया. योगी इससे ताकत पाकर खिलजी के आतंक को दूर करने में भी सक्षम हुए. इसके बाद से ही गोरखपुर में मकर संक्रांति को विजय दर्शन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा. संक्रांति के मौके पर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी का भोग चढ़ता है और कई दिनों तक चलने वाला खिचड़ी मेला भी यहां लगता है.
तिल खाने की मान्यता और पौराणिकता
मकर संक्रांति पर तिल खाने को लेकर भी एक पौराणिक मान्यता रही है. पंडित सुभाष पांडेय के मुताबिक, श्रीमद्भागवत और श्रीदेवी भागवत महापुराण के अनुसार शनिदेव का अपने पिता सूर्यदेव से बैर था. कारण कि अपने पिता को उन्होंने अपनी माता और पहली पत्नी संज्ञा के बीच भेदभाव करता पाया. नाराज होकर शनि ने पिता को ही कुष्ठरोग का श्राप दे डाला.
रोगमुक्त होने पर सूर्यदेव ने शनि के घर यानी कुंभराशि को जला दिया. बाद में अपने ही पुत्र को कष्ट में देखकर उन्हें अफसोस हुआ. उन्होंने कुंभ राशि में देखा तो वहां तिल के अलावा सबकुछ जल चुका था. शनि ने तिल से ही सूर्यदेव को भोग लगाया, जिसके बाद शनि को दोबारा उनका वैभव मिल गया. इसी वजह से इस दिन तिल खाने और दान करने का महत्व है.
तिल और खिचड़ी खाने का वैज्ञानिक महत्व
मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी और तिल खाने का विज्ञान से भी नाता है. संक्रांति के समय देश के ज्यादातर हिस्सों में भारी ठंड पड़ती है. ऐसे में सूर्य का एक से दूसरी राशि में जाना मौसम में बदलाव लाता है, जिस कारण मौसमी बीमारियों का डर रहता है. तिल और खिचड़ी तमाम वैसे पोषक तत्वों से भरा होता है, जो हमारे शरीर को गर्मी देता है और हमारी इम्यूनिटी बढ़ाता है. इस वजह से तिल-गुड़ के लड्डू और खिचड़ी खाई जाती है.