हरियाली तीज पर लगने वाले झूले वक़्त के साथ कम होते जा रहे हैं
आज हरियाली तीज है, पहले गांवों में हरियाली तीज मतलब सावन की तीज पर गली मोहल्लों में झूले लगते थे, लेकिन अब सावन में लगने वाले झूले और सावन के महीने में महिलाओं द्वारा गए जाने वाले गीत अब कम सुनाई पड़ते हैं। पेड़ों पर पड़ने वाले झूले व तमाम ऐसी परंपराएं हैं, जिनका सावन से गहरा रिश्ता है। कोरोना कॉल के चलते इन रिश्तों पर और भी ग्रहण लगने लगा है। लेकिन गांवों में परम्परायें अब भी निभाई जाती है, आकाश में जब सावन के काले-कजरारे बादल छाते हैं। झूम-झूम कर होने वाली बरसा लोगों के तन-मन को भिगोती है। ऐसे में खेजड़ी और नीम की डालों पर पड़ने वाले झूले, बारिश की सोंधी खुशबू, हरी-भरी धरती के बीच लोगों के मन को आनंदित कर देता हैं।
मोमासर की पूजा सैनी का कहना है की आजकल टूटते परिवार, तेज गति से भागती हुई रोजमर्रा की जिदगी और बढ़ता व्यवसायीकरण ऐसे कारण हैं जो हमे अपनी रीति-रिवाजों और परंपराओं से दूर कर रहे हैं।
इसी प्रकार गांव की ही गीता नायक और मोनिका शर्मा का कहना है कि मन-भावन सावन में पड़ते रिमझिम फुहार, छम-छम ध्वनि और उसके बीच बिखरती इंद्रधनुष की छंटा के बीच पेड़ों पर पड़ने वाले झूले व महिलाओं की लोकगीत से सावन महरूम होता जा रहा है। परम्पराओं के टूटने के लिए बढ़ती हुई आधुनिकता भी जिम्मेदार है।