जयपुर. राजस्थान की खूबसूरती यहां के छोटे-छोटे गांवों में बसती है. जहां हजारों लोग अन्नदाताओं के रूप में भारत की खास पहचान रखते हैं. इसी भाव को बयां करती है शायर ताहिर अजीम की यह पंक्ति कि “शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ, पर ज़ेहन में आज भी गाँव का नक़्शा रखा है”. इसी तरह लोकल-18 की श्रृंखला “मेरा गांव मेरी मिट्टी” में आज हम लेकर आए हैं एक ऐसे गांव की कहानी जिसने अपने खास हुनर के दम पर देशभर में पहचान बनाई है.
जयपुर और दौसा जिले की सीमा पर बसा अभयपुरा गांव करीब 4 हजार की आबादी वाला एक गांव है. यहां हर घर में युवा शेफ के रूप में देश के कोने-कोने में काम कर रहे हैं. यह हुनर उन्हें पीढ़ियों से विरासत में मिला है. आज अभयपुरा गांव के 100 से ज्यादा युवा मुंबई, दिल्ली और अहमदाबाद जैसे शहरों के होटलों, रेस्तराओं और चौपाटियों में शेफ का काम कर रहे हैं. यही कारण है कि यह गांव अपनी खास पहचान के लिए जाना जाता है.
शिक्षा में पिछड़ गया, लेकिन हुनर ने दी नई राह
गांव के बुजुर्ग शिक्षक योगेश कुमार बताते हैं कि आजादी के बाद से यहां शिक्षा की स्थिति बेहद खराब रही. गांव में केवल एक प्राथमिक स्कूल था और वह भी पांचवीं तक ही सीमित था. शिक्षा की सुविधा नहीं होने के कारण अधिकांश युवाओं ने अपने पूर्वजों के कार्य को ही अपनाया. यही कारण है कि गांव में 500 से अधिक युवाओं के होने के बावजूद सरकारी नौकरियों में भागीदारी लगभग ना के बराबर रही. आज भी गांव की बड़ी आबादी खेती-बाड़ी और शेफ के पेशे से जुड़ी हुई है. हालांकि अब नई पीढ़ी के युवाओं में शिक्षा को लेकर जागरूकता आ रही है और वे धीरे-धीरे मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं. इसके बावजूद सरकारी योजनाएं और रोजगार के अवसर अभी भी गांव से दूर हैं.
खेती की ज़मीन बहुत, लेकिन पानी और तकनीक की कमी
अभयपुरा गांव की बड़ी खासियत यह है कि यहां के अधिकतर घरों के पास पीढ़ियों पुरानी बड़ी ज़मीनें हैं. गांव में राजपूत समाज की बहुलता है और कुछ परिवारों के पास 300 से 500 बीघा तक जमीन है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि गांव के आसपास कोई नदी, नहर या तालाब नहीं है. इसका सीधा असर खेती पर पड़ा है. आधी से ज्यादा ज़मीन बंजर है और सिंचाई के संसाधनों की कमी के कारण फसलें भी उतनी नहीं होतीं जितनी होनी चाहिएं. खेती में आधुनिक संसाधनों और सरकारी योजनाओं की पहुंच भी यहां नहीं है. इसी वजह से गांव के युवाओं ने परंपरागत खेती को छोड़कर शेफ का पेशा अपनाया और वहीं से अपने रोजगार की राह बनाई.
राजधानी से नजदीक, फिर भी विकास से दूर
अभयपुरा गांव पहले जयपुर जिले में आता था लेकिन दौसा जिले के गठन के बाद इसे दौसा में शामिल कर दिया गया. यह गांव बॉर्डर पर स्थित है, इसलिए विकास की किसी भी योजना में यह पिछड़ गया. आज भी गांव में सड़क, अस्पताल, स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं. गांववासियों ने अपने स्तर पर एक छोटा बाजार तो बना लिया है लेकिन सरकारी भवन या संस्थाएं अभी तक यहां नहीं पहुंची हैं. स्थानीय ग्रामीण पृथ्वीराज बताते हैं कि गांव की 4 हजार की आबादी के बावजूद राजनीतिक जागरूकता का अभाव और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण अभयपुरा आज भी विकास की लिस्ट में सबसे पीछे है.
रूढ़ियों में उलझी रही महिलाएं, अब धीरे-धीरे आ रहे बदलाव
गांव की महिलाओं से बात करने पर उन्होंने बताया कि अभयपुरा जैसे गांव में रूढ़िवादी परंपराओं के कारण महिलाएं सदियों से घर तक ही सीमित रहीं. ना उनके लिए कोई स्कूल था, ना कॉलेज और ना कोई स्किल ट्रेनिंग सेंटर. लेकिन अब समय बदल रहा है. कुछ लड़कियां अब शहरों तक जाकर पढ़ाई कर रही हैं. कुछ ने नौकरियों में भी प्रवेश किया है. हालांकि अभी भी गांव में लड़कियों के लिए कोई अलग स्कूल या कॉलेज नहीं है. महिलाएं अधिकतर घरों में सिलाई-कढ़ाई या घरेलू कामों तक ही सीमित हैं. गांव में महिला शिक्षा और सशक्तिकरण के लिए एक ठोस नीति की जरूरत है.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव, अब भी कर रहा इंतजार
स्थानीय लोग बताते हैं कि मतदान में गांव की भागीदारी अच्छी रही है. लेकिन आजादी के बाद से गांव का कोई भी व्यक्ति ना तो पंचायत स्तर पर, ना ही विधानसभा या लोकसभा स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व तक पहुंच पाया है. जयपुर से महज 50 किलोमीटर की दूरी पर होने के बावजूद यह गांव विकास की मुख्यधारा से कटा रहा. गांव बॉर्डर पर होने के कारण जो सुविधाएं जयपुर या दौसा की ओर भेजी जाती हैं, वे इस गांव तक नहीं पहुंच पातीं. यही कारण है कि यहां का युवा अपने बलबूते पर काम कर रहा है, लेकिन अब गांव को सरकारी नजर और योजनाओं की सख्त जरूरत है. यह गांव आज भी अपनी प्रतिभा और हुनर के दम पर एक नई पहचान बना रहा है. लेकिन अगर इसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में बेहतर संसाधन और योजनाएं मिलें, तो यह गांव राजस्थान ही नहीं, पूरे भारत के लिए एक उदाहरण बन सकता है.




















