ये ज़मी ऐसी ना होती
ये आसमां ऐसा ना होता
हिन्दू मुसलमां ना होकर
आदमी अगर आदमी ही होता
जन्नत ओर कंही ना होती
स्वर्ग यहीं पे नसीब होता
मन्दिर मस्जिद में ना होकर
लोगो के दिलो में अगर भगवान होता
ये गंगा ना मैली होती
सागर भी अपनी हदों में रहता
आदमी अगर इस जंहा में
इतना भूखा ना जन्मा होता
ना नफ़रतों की आग सुलगती
ना आदमी इतना बेसुध होता
छोड़ कर दुसरो के घरों में झांकना
एक बार वो अगर अपने दिल में झांक लेता
तू ऐसा ना होता
मैं ऐसा ना होता
इंसा अगर इस तरह
ना पन्थों में बंटा होता
हर तरफ सकूं ही सकूँ होता
हर कोई चैन की नींद सोता
अपनो ने ना रखा होता पत्थर
तो फिर हर कोई अपनी मंजिल पर होता
डॉ मारू मस्ताना
लेखक डॉ एन पी मारू श्री डूंगरगढ़ के तुलसी सेवा संस्थान में वरिष्ठ चिकित्सक (सर्जन) के पद पर कार्यरत है।